भारतीय कृषि में वैश्विक तापन का प्रभाव

 

श्रीमती निवेदिता .लाल

सहायक प्राध्यापक, भूगोल शासकीय कमलादेवी महिला महाविद्यालय

राजनांदगांव (..)

 

सारांश

ग्लोबल वार्मिग के कारण प्रकृति में बदलाव रहा है कहीं भारी वर्षा तो कही सूखा कही लू तो कहीं ठण्ड ग्लोबल वार्मिग का भारतीय कृषि में दूरगामी प्रभाव पडने की संभावना है इससे फसल चक्र भी अनियमित हो जायेगा तथा कृषि उत्पादकता भी प्रभावित होगी ऐसा अनुमान है कि 2100 तक फसलों की उत्पादकता में 10-40 प्रतिशत की कमी आयेंगी सूखा और बाढ़ में बढोतरी होने से फसलों के उत्पादन में अनिश्चितता की स्थिति होगी फसलों के बोये जाने का क्षेत्र भी बदलेगा, कुछ नये स्थानों पर उत्पादन किया जायेगा खाद्य व्यापार में पूरे विश्व में असंतुलन बना रहेगा पशुओं के लिये पानी, पशुशाला और उर्जा संबंधी जरूरतें बढ़ेंगी विशेषकर दुग्ध उत्पादन हेतु वर्षा आधारित क्षेत्र की फसलों को अधिक नुकसान होगा, क्योकि सिचाई हेतु पानी की उपलब्धता भी कम होती जायेगी कृषि क्षेत्र में ग्लोबल वार्मिंग के जो संभावित प्रभाव दिखने वाले है वे दो प्रकार के हो सकते है, 1) क्षेत्र आधारित, 2) फसल आधारित

      ग्ेंाहॅु और धान हमारे देश की प्रमुख खाद्य फसले है इनके उत्पादन पर अधिक प्रभाव पड रहा है फसलों के अतिरिक्त पशुओं, मिट्टी, रोग कीट पर भी प्रभाव पडेगा वैश्विक तापन को रोकने के लिए कृषि क्रियाओं में सुधार किये जाने पर कुछ हद तक इसमें नियंत्रण पाया जा सकता है इसके लिए निम्न प्रयास किये जाने चाहिए -

1.       संरक्षण कृषि मृदा कार्बन स्तर में वृद्धि

2.       सिचाई जल का समुचित उपयोग एवं संरक्षण

3.       रासायनिक कृषि पर नियंत्रण उचित तकनीकों का उपयोग

4.       कृषि वानिकी उद्यानिकी को बढावा

5.       खरपतवारो के प्रबन्ध पर विशेष ध्यान

6.       मृदा सौर्यीकरण

7.       फसल चक्र, अंतवर्ती फसले, बुवाई तिथि में फेरबदल पौध सधनता, मृदा बिछावन की फसले

8.       उचित पोषक तत्व प्रबन्धन जल निकास

9.       जैव ईंधन फसलों की खेती को बढावा

10.    धान की कृषि पद्धति में सुधार द्वारा मिथेन उत्सर्जन में कमी

 

प्रस्तावना

तेजी से बढ रही वैश्विक तपन की समस्या एवं इसके कारण दिन-प्रतिदन गहराता जलवायु संकट आज सम्पूर्ण विश्व एवं मानवता के समक्ष एक ऐसी चुनौती बनकर खडा है जिसे तो नकारा जा सकता है और ही मूकदर्शक बनकर देखा जा सकता है पिछले सौ वर्षों में पृथ्वी के निकट सतह का तापमान लगभग 1डिग्री सेंटीग्रेड बढा है और 21 वीं सदी के अंत तक इसमें विभिन्न अनुमानों के अनुसार 1.1 से 6.4 डिग्री सेंटीग्रेड तक वृद्धि की संभावना है ग्लोबल वार्मिंग के कारण संभावित भयंकर त्रासदी का निर्णायक बिंदु बहुत करीब चुका है और यदि इससे निजात के उपायों को तुरंत कार्यान्वित नही किया गया तो हम विनाश के ऐसे समुद्र में पहुंच जायेंगे जिसका कोई किनारा नही होगा

 

 

वैश्विक तपन का मुख्य कारण मनुष्य की विस्फोटक जनसंख्या और उसके अनियंत्रित तथाकथित विकास की बढती उर्जा जरूरतों को पूरा करने हेतु जलाये जाने वाले जीवाश्म ईंधन (पेट्रोलियम, कोयला आदि) से निकलने वाली कार्बन डाईआक्साईड अन्य ग्रीन हाउस गैंसे  ( मिथेन, नाइट्रस आक्साइड एवं क्लोरो-फलोरो कार्बन) आदि है यदि इन ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम नही किया गया तो निकट भविष्य में हमें गंभीर समस्याओं का सामना करना पड सकता है

तालिका-1 ग्रीन हाउस गैसें-स्रोत एवं प्रभाव

क्र.      गैस     स्रोत    प्रभाव

 

1.       कार्बन डाई-आक्साइड़     ऊर्जा उत्पादन के लिए ईंधन का दहन (पेट्रोल,कोयला,लकडी) पृथ्वी के ताप में वृद्वि

2.       कार्बन मोनोआक्साइड़    ऊर्जा उत्पादन में ईधन का अधूरा दहन    संास और फेफडों की समस्या

3.       सल्फर डाइ-आक्साइड़     गंधयुक्त ईधन का दहन  अम्लीय वर्षा

4.       नाइट्रोजन आक्साइड़     भट्ठियों में ईधन का जलना      ताप वृद्वि एवं श्वास रोग

5.       ओजोन हाइड्रोकार्बन और नाइट्रोजन के आक्साइड़  ताप वृद्वि और फेफडों में क्षति

6.       मीथेन  प्राकृतिक गैस एवं अवशिष्ट पदार्थ         पृथ्वी के तापमान में वृद्वि

7.       क्लोरो-फ्लोरो कार्बन      औद्योगिक उत्सर्जन     ओजोन क्षरण, ताप वृद्वि

8.       अन्य हाइड्रोकार्बन        औद्योगिक क्रियाओं के दौरान    ताप वृद्वि, आंखों में जलन

 

वैश्विक ताप का भारतीय कृषि पर संभावित प्रभाव:-

वैश्विक तपन के कारण भारत जैसे अत्याधिक जनसंख्या वाले देशों पर बहुत दूरगामी प्रभाव पडने की संभावना है -

1.       सन् 2100 तक फसलों की उत्पादकता में 10-40 प्रतिशत की कमीं आयेगी

2.       रबी की फसलों को ज्यादा नुकसान होगा प्रत्येक 1 डिग्री से.ग्रे. तापमान बढने पर 4-5 करोडटन अनाज उत्पादन में कमी आयेगी

3.       पाले के कारण होने वाले नुकसान में कमी आयेगी जिससे आलू, मटर और सरसों का कम नुकसान होगा

4.       सूखा और बाढ में बढोत्तरी होने की वजह से फसलों के उत्पादन में अनिश्चितता की स्थिति होगी

5.       फसलों के बोये जाने का क्षेत्र भी बदलेगा, कुछ नये स्थानों पर उत्पादन किया जायेगा

6.       खाद्य व्यापार में पूरे विश्व में असंतुलन बना रहेगा

7.       पशुओं के लिये पानी, पशुशाला और उर्जा संबंधी जरूरतें बढेंगी विशेषकर दुग्ध उत्पादन हेतु

8.       समुद्रो नदियों के पानी का तापमान बढने के कारण मछलियों जलीय जंतुओं की प्रजनन क्षमता उपलब्धता में कमीं आएगी

9.       सूक्ष्म जीवाणुओं और कीटों पर प्रभाव पडेगा कीटों की संख्या में वृद्धि होगी तो सूक्ष्म जीवाणु नष्ट होगें

10.      वर्षा आधारित क्षेत्र की फसलों को अधिक नुकसान होगा क्योंकि सिंचाई हेतु पानी की उपलब्धता भी कम होती जायेगी

 

फसलों पर प्रभाव:- कृषि क्षेत्र में ग्लोबल वार्मिंग के जो संभावित प्रभाव दिखने वाले है वे मुख्य रूप से दो प्रकार के हो सकते हैं - 1. क्षेत्र आधारित 2. फसल आधारित अर्थात विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न फसलों पर अथवा एक ही क्षेत्र की प्रत्येक फसल पर अलग-अलग प्रभाव पड सकता है धान और गेहूं भारत देश की प्रमुख खाद्य फसलें हैं इनके उत्पादन पर ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव पड रहा है

 

धान का उत्पादन - हमारे देश के कुल फसल उत्पादन में 42.5 प्रतिशत भाग में धान की कृषि की जाती है तापमान में वृद्धि के साथ साथ धान के उत्पादन में गिरावट आने लगेगी ऐसा अनुमान है कि 2 डिग्री से.ग्रे. तापमान वृद्धि से धान का उत्पादन 0.75 टन प्रति हेक्टेयर कम हो जायेगा देश का पूर्वी भाग धान उत्पादन में ज्यादा प्रभावित होगा अनाज की मात्रा में कमी जायेगी धान वर्षा पर आधारित फसल है बाढ या सूखा की स्थिति बढने पर इस फसल का उत्पादन गेहूं की अपेक्षा अधिक प्रभावित होगा

 

गेंहू उत्पादन:- यदि तापमान में 2 डिग्री से.गे्र. वृद्धि होती है गेहूं की उत्पादकता में कमीं आयेगी उत्तरी भारत में जहां उत्पादकता ज्यादा है, वहां प्रभाव कम दिखेगा, किंतु जहां उत्पादकता कम है वहां ज्यादा प्रभाव दिखेगा प्रत्येक 1 डिग्री सेग्रे. तापमान बढने पर गेंहू का उत्पादन 4-5 करोड टन कम होता जायेगा अगर किसान इसके बुवाई का समय सही कर ले तो उत्पादन की गिरावट 1-2 टन कम हो सकती है

तलिका-2

वर्ष    

मौसम  तपमान वृद्वि (से.ग्रे.)   वर्षा में परिवर्तन (प्रतिशत)

                 न्यूनतम अधिकतम       न्यूनतम अधिकतम

 

2020     रबी     1.08     1.54     -1.95    4.36

         खरीफ   0.87     1.12     1.81     5.10

 

2050     रबी     2.54     3.18     -9.22    3.82

         खरीफ   1.81     2.37     7.18     10.52

 

2080     रबी     4.14     6.31     -24.83   -4.50

         खरीफ   2.91     4.62     10.10    15.18

 

ग्लोबल वार्मिंग से केवल फसलों का उत्पादन ही प्रभावित नही होगा वरन उनकी गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव पडेगा गंगा तटीय क्षेत्रों में तापमान वृद्धि के कारण अधिकांश फसलों का उत्पादन घटेगा

 

पशुओं पर प्रभाव:- ग्लोबल वार्मिंग का असर वनस्पतियों के साथ-साथ पशुओं पर भी पडेगा संभावित प्रभाव इस प्रकार हो सकते हैं - तापवृद्धि का जानवरों के दुग्ध उत्पादन प्रजनन क्षमता पर सीधा असर पडेगा ऐसा अनुमान है कि 2020 तक 1.6 करोड टन तथा 2050 तक 15 करोड टन तक गिरावट सकती है सबसे अधिक गिरावट संकर नस्ल की गायों में (0.63प्रतिशत.) भैसों में (0.50प्रतिशत) देसी नस्लों में (0.40प्रतिशत) होगी संकर नस्ल की प्रजातियां गर्मी के प्रति कम सहनशील होती है इसलिये उनकीप्रजनन क्षमता से लेकर दुग्ध क्षमता ज्यादा प्रभावित होगीं इनकी अपेक्षा देशी नस्लों के पशुओं पर ग्लोबल वार्मिंग का असर कम होगा

 

जल संसाधन पर प्रभाव - पृथ्वी पर इस समय 140 करोड घन मीटर जल है जिसमें 97 प्रतिशत खारा जल (समुद्री) है मनुष्य के हिस्से में कुल 136 हजार घन मीटर जल ही बचता है विश्व में पानी की खपत प्रत्येक 20 साल में दुगुनी हो जाती है जबकि धरती पर पानी की उपलब्ध मात्रा सीमित है कृषकों के लिए जल आपूर्ति की भंयकर समस्या हो जाएगी, तथा बाढ़ एवं सूखें की बारंबारता  में वृद्वि होगी अर्धशुष्क क्षेत्रों में लंबे शुष्क मौसम तथा फसल उत्पादन की असफलता बढ़ती जायेगी बडी नदियों के मुहाने पर भी कम जल बहाव, लवणता, बाढ़ में वृद्वि तथा शहरी एवं औद्योगिक प्रदुषण की वजह से सिंचाई हेतू जल उपलब्धता पर भी खतरा महसूस किया जा सकता है पीने योग्य पानी का अभाव रहेगा

 

मिट्टी पर प्रभावः- तापमान बढ़ने से मिट्टी की नमी और कार्यक्षमता प्रभावित होगी मिट्टी में लवणता बढेगी और जैव विविधता घटती जायेगी बाढ़ आपदा से मिट्टी क्षरण और सूखे से बंजरता बढ़ेगी

 

रोग और कीट पर प्रभावः- गर्म जलवायु  कीट-पतंगों की प्रजनन क्षमता में वृद्वि हेतु सहायक होता है हवा के रूख में बदलाव से हवाजनित कीटों में वृद्वि के साथ-साथ बैक्टीरिया फंगस में भी वृद्वि होगी इन्हें नियंत्रित करने के लिए अधिकाधिक कीटनाशक का प्रयोग अन्य बीमारियों को जन्म देगा तालिका-1. में इसे दर्शाया गया है

 

ग्लोबल वार्मिंग रोकने हेतु कृषि क्रियाओं में सुधार

1.       संरक्षण कृषि:- इसके अंतर्गत हम कृषि में उपयोग किये जाने वाले संसाधनों (फसल उत्पादन सुरक्षा हेतु) के न्यूनतम उपयोग के द्वारा ही अधिकतम उत्पादकता प्राप्त करते हैं इस प्रकार कृषि क्रियाओं पर कम संसाधन खर्च उर्जा प्रयोग होने से पर्यावरण को होने वाले नुकसान में कमीं आती है न्यूनतम जुताई विधि एवं परम्परागत जुताई विधि का चक्रीय उपयोग करके हम कुल खर्च होने वाली उर्जा में बचत करके वातावरण को होने वाले नुकसान से बचा सकते हैं

2.       सिंचाई जल का समुचित उपयोग एवं संरक्षण - बागानों चैडी लाइनों में बोई गई फसलों में ड्रिप सिंचाई पद्धति को अपनाकर उपलब्ध सिंचाई जल का समुचित उपयोग किया जा सकता है लेजर लेवलर के प्रयोग से मृदा ढाल को सुव्यवस्थित करके सिंचाई जल का समुचित उपयोग संरक्षण किया जा सकता है

3.       रासायनिक कृषि पर नियंत्रण उचित तकनीकों का उपयोग - आज विश्व स्तर पर कृषि में रसायनों के न्यायोचित उपयोग के लिये व्यापक जागरूकता लाने की नितांत आवश्यकता है हमें जैविक उर्वरकों मृदा उत्पादकता को बढ़ाने वाले प्राकृतिक संसाधनों का व्यापक स्तर पर उपयोग करना होगा फसलों की कीट रोगरोधी किस्मों खरपतवारों को दबानेवाली प्रजातियों के विकास उपयोग पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है वर्तमान समय में विकसित स्मार्ट शाकनाशी जिनका बहुत ही कम मात्रा में (4-100 ग्राम प्रति हेक्टेयर) उपयोग होता है इन समस्याओं को कम करने में प्रभावी पाये गये हैं इनसे पर्यावरण प्रदूषण  भी कम होता है

4.       कृषि वानिकी उद्यानिकी को बढ़ावा - फलवृक्षों के अधिकाधिक रोपण से हमें खाद्य-फसलों के अलावा ग्रीनहाउस प्रभाव को कम करने में भी मदद मिलेगी इसक अलावा क्षेत्रीय मौसम को ठंडा रखने मृदा क्षरण रोकने प्रदूषण कम करने में भी मदद मिलेगी लवणीय उसर भूमि पर उसर सहनशील फल वन वृक्षों के रोपण द्वारा इन समस्याग्रस्त क्षेत्रों की कृषि उत्पादकता को उच्च स्तर तक बढ़ाया जा सकता है

5.       फसल चक्र - एक ही खेत में अलग-अलग वर्षों में अलग-अलग फसलों को हेर-फेर करके इस प्रकार उगाना होगा जिससे मृदा की उर्वरता बनी रहे तथा किसी एक तरह के खरपतवारों, बीमारी कीडों की निरंतर बढोतरी होने पाये इसके अलावा मृदा कार्बन की मात्रा बढाने में भी फसल चक्र सहयोगी होता है मृदा कार्बन की मात्रा बढने से अरहर, कपास, गन्ना जैसे गहरे जडों वाली फसलों के साथ फसल चक्र अधिक प्रभावी होगा

6.       अंर्तवर्ती - ऐसी फसलें जो अधिक दूरी की पंक्तियों में बोई गई हों उनके बीच रिक्त पडे स्थान पर अन्य फसल लगाकर खरपतवार को रोका जा सकता है जैसे-मक्का के साथ लोबिया, अरहर के साथ ज्वार आदि

7.       बुआई तिथि में फेर बदल पौध सघनता - कुछ फसलों की बुआई जल्दी कुछ भी देर करने तथा कुछ फसलों के सघन बोने में खरपतवारों की वृद्धि के लिये कम स्थान रहता है तथा कीटनाशक शाकनाशक का उपयोग भी न्यूनतम मात्रा में करना पडता है

8.       उचित पोषक तत्व प्रबंधन जल निकास - फसलों में पोषक तत्वों का उचित प्रबंधन करना होगा जिससे उपयोग किये गये नत्रजन, फास्फोरस, पोटाश आदि पौधों को अधिकाधिक मात्रा में उपलब्ध हो सके और नाइट्रस आक्साइड के रूप में उत्सर्जन कम से कम हो सके

9.       जैव ईंधन फसलों की खेती को बढावा - ग्रीन हाउस प्रभाव को रोकने के लिये जैव ईंधन फसलें जैसे जेट्रोफा, मीठा ज्वार मक्का इत्यादि के उपयोग की काफी संभावनाएं है ये फसलें वातावरण की कार्बन डाइआक्साइड को संचित करके जैव ईंधन बनाने में उपयोग की जाएंगी उसके बाद इन्हें अकेले या पेट्रोलियम के साथ मिश्रित रूप में जलाया जायेगा और विभिन्न उर्जा कार्यों के लिये उपयोग किया जायेगा इस प्रकार वातावरण में अतिरिक्त कार्बन डाइआक्साइड का उत्सर्जन नहीं होगा

 

धान की कृषि पद्धति में सुधार द्वारा मिथेन उत्सर्जन में कमीं वातावरण में उत्सर्जित होने वाली कुल मिथेन का ज्यादातर भाग जलभराव रोपण पद्धति वाले धान के खेतों से ही निकलती है धान का उत्पादन यदि सीधी बुआई वाली एयरोबिक पद्धति से करें तो मिथेन का उत्सर्जन काफी कम हो जाता है हालाकि इससे खरपतवार की समस्या उत्पन्न होती है कम मिथेन उत्सर्जन करने वाली धान की प्रजातियों के विकास की संभावनाएं भी तलाशनी होंगी

 

निष्कर्ष

वायुमंडल में आवश्यकता से अधिक ग्रीन हाउस गैसों का दिनोंदिन संचयन हो रहा है, जिसके परिणाम स्वरूप वायुमण्डलीय तापवृद्धि से धरती के तापमान में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है तापवृद्धि के कृषि पर तात्कालिक एवं दूरगामी प्रभावों के अध्ययन की आवश्यकता है इसके साथ हमें ऐसी किस्म की फसलें विकसित करनी चाहिये जो ग्लोबल वार्मिंग के खतरों से निपटने में सक्षम हो अर्थात फसलों की ऐसी किस्मों का ईजाद जो ज्यादा गर्मी, कम या ज्यादा बारिश सहन करने में सक्षम हो

 

संदर्भ

1.       धरती का बढता तापमान-डाॅ. हरिओम श्रीवास्तव-उत्तर भारत भूगोल पत्रिका जून 1997 पेज क्र. 79

2.       जलवायु परिवर्तन का कृषि पर प्रभाव-जितेन्द्र द्विवेदी-योजना जून 2009 पेज क्र. 47 -50

3.       कृषि क्रियाओं में सुधार - वैश्विक तपन में उतार-चन्द्रभानु - योजना अप्रेल 2010 पेज क्र. 18-22

4.       जलवायु परिवर्तन - कारण एवं प्रभाव-प्रांजलधर-योजना मार्च 2010, पेज क्र. 23-28

5.       धरती के बढते तापमान का मुकाबला-अश्विनी कुमार लाल - योजना जून 2008, पेज क्र. 24-28

6.       जलवायु में बदलाव की चुनौती - नितिन देसाई-योजना जून 2008, पेज क्र. 11-15

7.       ग्लोबल वार्मिंग का धरती पर प्रभाव-मयंक श्रीवास्तव-कुरूक्षेत्र जनवरी 2008, पेज क्र. 19-23

 

 

 

 

 

Received on 11.07.2012

Revised on 05.08.2012

Accepted on 12.08.2012     

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Research J.  Humanities and Social Sciences. 3(3): July-September, 2012, 402-405